रेवरा आंदोलन की सफलता की कहानी, रेवरा गांव के बुजुर्गों की जुबानी

रेवरा आंदोलन की सफलता की कहानी, रेवरा गांव के बुजुर्गों की जुबानी
डाॅ. अशोक प्रियदर्शी
बिहार के नवादा जिले के काशीचक प्रखंड में एक गांव है रेवरा। रेवरा किसान आंदोलन का तीर्थस्थल रहा है। लेकिन इसकी खूबियों से बहुत कम लोग वाकिफ रहे हैं। समय के साथ रेवरा सत्याग्रह की कहानी गुम पड़ती जा रही है। उस दौर के ज्यादातर लोग गुजर गए। लेकिन अब भी कुछ लोग जीवित हैं, जिनकी जुबां पर रेवरा की कहानियां जीवंत है। आज भी रेवरा सत्याग्रह कई मायने में महत्वपूर्ण है। प्रतिकूल परिस्थिति में ग्रामीणों की एकजुटता समाज को प्रेरणा देता है। महिलाओं के हौसले समाज को झकझोरता है। आइए जानते हैं रेवरा आंदोलन की सफलता की कहानी रेवरा के बुजुर्गों की जुबानी।
रामचंद्र सिंह, रेवरा, नवादा, उम्र-90
वैसे तो, रेवरावासियों के संघर्ष की कहानी लंबी है। पर असल आंदोलन आठ माह की है। 90 वर्षीय रामचंद्र सिंह बताते हैं कि 1938-39 के आठ माह के किसान आंदोलन के आगे जमींदार को झुकना पड़ा था। स्वामीजी की अगुआई में रेवरा में सत्याग्रह हुआ था। देशभर से करीब 25 हजार किसान जुटे थे। खास कि आंदोलन के लिए भोजन की व्यवस्था भी आंदोलनकारी खुद जुटाते थे। इस आंदोलन में गांव का एक एक व्यक्ति साझीदार था।
रामचंद्र सिंह कहते हैं कि महिलाएं भी रेवरा आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाईं। पुरूष जब कमजोर पड़ने लगते थे तब महिलाएं आगे आने के लिए उन्हें प्रेरित करती थी। यही नहीं, जमींदार के कारिंदे और ब्रिट्शि अधिकारियों का अत्याचार जब बढ़ गया, पुरूष भागने को मजबूर हो गए तब महिलाएं लड़ाई में कूद गईं। आखिर में ब्रिट्रिश अधिकारियों और जमींदार के कारिंदे पीछे लौटने पर मजबूर हो गए थे।