पचपन साल से हर रविवार को गरीबों का निःशुल्क इलाज करते हैं डाॅ वर्मा

डाॅ. अशोक प्रियदर्शी
डाॅक्टर साहब मेरे बेटे को बचा लीजिए। यह आखिरी सहारा है। एक बेटे को खो चुका हूं। पैसे की कमी के चलते उसका इलाज नही करा पाया। दूसरे बेटे की हालत भी वैसे ही हो गई है। मुश्किल से बर्तन बेचकर आपका फीस जुटाया हुं। यह फरियाद थी बिहार के अररिया जिला के रेणु गांव के एक पीड़ित परिवार की, जहां के ज्यादातर लोग कालाजार से पीड़ित थे। डाॅ विरेन्द्र प्रसाद वर्मा ने उस बच्चे का इलाज किया। उसे अपनी तरफ से दवाएं दी। फीस का पैसे भी वापस करवा दिए। बच्चा जब ठीक हो गया तो मरीज के परिजन चिकित्सक का शुक्रिया अदा करने के लिए उनके क्लिनिक पर दोबारा पहुंचे। यह घटना है 1962 की। वैसे चिकित्सक और मरीज के बीच ऐसा संवाद अकसर देखने सुनने को मिलते रहे हैं।
लेकिन अररिया की यह घटना डाॅ वर्मा को सोचने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद चिकित्सक ने सप्ताह में एक दिन गरीबों के लिए देने का तय किया। इस दिन किसी भी जरूरतमंद से फीस नही लेने का निर्णय लिया। यह सिलसिला पिछले पचपन सालों से चलता आ रहा है। हर रविवार को गरीबों और लाचारों को निःशुल्क इलाज करते हैं। जरूरतमंदों को जरूरी दवाइयां भी उपलब्ध करा देते हैं। यही नहीं, क्लिनीक बंद रहने की स्थिति में घर पर भी जरूरतमंदों का इलाज कर दिया करते हैं। डाॅ वर्मा कालाजार पीड़ित गांवों में कैंप चलाकर लोगों का इलाज किया। फणिश्वरनाथ रेणु के गांव में भी सेवा दिया। लिहाजा, अररिया के कालीबाजार निवासी 93 वर्षीय डाॅ वर्मा की पहचान एक चिकित्सक के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी रही है।
चाइना युद्ध के समय जख्मी सैनिकों की सेवा किया
1962 में बोर्डर को लेकर चाइना और भारत के साथ जब युद्ध हुआ था तब पूर्वोतर भारत के सैनिक इस रास्ते दिल्ली पहुंचते थे। जख्मी लोगों के इलाज के लिए कटिहार में भी एक कैंप था। तब डाॅ वर्मा स्वैच्छिक सेवा दिया था। इसके अलावा जख्मी नागरिकों का भी इलाज किया था।
यही नहीं, 1964 में नेपाल में भूकंप आया था। तब विराटनगर के धरांध में कई दिनों तक स्वैच्छिक सेवा दिया। प्रलयंकारी बाढ़ के दौरान प्रभावित लोगों के इलाज में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। 1951, 1986 और 2008 के बाढ़ में उल्लेखनीय कार्य किया। 1951 में बेहतर सेवा के लिए उन्हें बिहार सरकार सम्मानित भी की थी। इतना ही नही, डाॅ वर्मा 15 सालों तक रेड क्राॅस सोसायटी के मानद सचिव रहे। इस दौरान कई स्तर से लोगों को निः शूल्क सेवाएं उपलब्ध कराई।
राष्ट्रीय आंदोलन में भी थे सक्रिय
डाॅ वर्मा राष्ट्रीय आंदोलन में भी सक्रिय थे। डाॅ वर्मा ने बताया कि, 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में अररिया थाना में करीब 60 छात्रों के समूह ने राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया था। छात्रों के समूह में वह भी थे। तत्कालीन इंसपेक्टर उस्मान खां ने फायरिंग का आदेश दे दिया था। लेकिन तत्कालीन एसडीओ ने रोक दिया इसके चलते उनसबों की जान बच सकी। डाॅ वर्मा जब वह दस साल के थे तब उन्हें महात्मा गांधी को नजदीक से देखने का अवसर मिला था। महात्मा गांधी 1934 में भूकंप के बाद उतर बिहार के दौरे पर आए थे। यही नहीं, डाॅ वर्मा का छात्र जीवन में ही डाॅ राजेन्द्र प्रसाद और सुभाषचंद्र बोस से भी मुलाकात का अवसर मिला।
चिकित्सा सेवा में आने के बाद डाॅ वर्मा का लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रभावती देवी से भी मुलाकात हुई थी।
डाॅ वर्मा के पिता थे रजिस्ट्ार
अररिया निवासी विरेन्द्र कुमार वर्मा के पिता का नाम यमुना प्रसाद है। उनके पिता रजिस्टार के पद पर कार्यरत थे। वर्मा मेडिकल की आधी पढ़ाई कोलकाता और आधी दरभंगा से पूरी की थी। दरअसल, भारत की आजादी के बाद देश का बंटवारा हुआ था तब डाॅ वर्मा कोलकाता से दरभंगा आ गए थे। आजादी के बाद मेडिकल की डिग्री हासिल की। उसके बाद वह चिकित्सक के रूप में अररिया, पूर्णिया, किशनगंज आदि अस्पतालों में पदस्थापित रहे। लेकिन स्वतंत्र काम करने की आदत के कारण निजी रूप से चिकित्सा सेवा शुरू किया। 1962 से निजी प्रैक्टिश करने लगे। उसी समय से रविवार को गरीबों को निःशुल्क चिकित्सा सेवा अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया। डाॅ वर्मा के एक मात्र संतान सुदन सहाय हैं। वह पेशे से सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं। सुदन सहाय बताते हैं कि उनके पिता के यहां पांच पीढ़ियों तक के लोग इलाज करा चुके हैं।