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दो गुमनाम नायक जिनकी गाथा से ग्रामीण भी अनभिज्ञ

अशोक प्रियदर्शी
          देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में बिहार के नवादा जिले के पसई निवासी जवाहिर रजवार और कर्णपुर निवासी एतवा रजवार की उल्लेखनीय भूमिका रही है। नवादा और आसपास के इलाका में होनेवाले विद्रोह की घटनाओं में जवाहिर और एतवा ने अंग्रेजों को छक्के छुड़ा दिया था। इनके संघर्ष की कहानी का जिक्र पटना केपी जायसवाल शोध संस्थान से प्रकाशित प्रज्ञा भारती और बिहार-झारखंड के स्वतंत्रता संग्राम जैसे किताबों में भी मिलता है। ताज्जुब कि इन दो नायकों की गाथा से उनके ग्रामीण भी अनभिज्ञ हैं। गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भीएतवा और जवाहिर को सेनानी के तौर पर याद नही किया जाता।
          चिंतनीय बात यह कि जवाहिर और एतवा को गांववाले भी अंग्रेजों के दिए बदनाम नाम से उन्हें जानते हैं। तब स्थिति दूसरी थी। जवाहिर और एतवा के पक्ष में लोग गोलबंद हो रहे थे। इन दोनों से ब्रिटिश हुकुमत की परेशानी बढ़ गई थी। तब अंग्रेजों ने जवाहिर और एतवा के अभियान को लूट पाट का नाम दे दिया था। ग्रामीणों के बीच में डकैत के रूप में प्रचारित किया गया। बहरहाल, तब का कोई व्यक्ति जीवित नही हैं। लेकिन दुखद कि आसपास के लोग दोनों नायकों को अंग्रेजों के दिए बदनाम नाम से जानते हैं। यह एतवा और जवाहिर के योगदानों के साथ अन्याय है।
अंग्रेजों को किया था परेशान
     विद्रोह के दौरान जवाहिर और एतवा ने अंग्रेंजों को नाकोदम कर दिया था। सरकारी कचहरी, बंगले, जमींदार और उसके कारिंदे की सम्पति विद्रोहियों के निशाने पर था। विद्रोहियों को जब मौका मिलता घटना को अंजाम देने से नही चूकते थे। कई जमींदारों ने भी विद्रोहियों को समर्थन करना शुरू कर दिया था। तब अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह पर काबू पाने के लिए विद्रोहियों को चोर और डकैत जैसा नाम देने लगे थे, ताकि विद्रोहियों से लगाव के बजाय लोगों में नफरत पैदा हो। अंग्रेज अपनी इस कुटनीति में काफी हद तक सफल भी रहे थे।
जवाहिर और एतवा की अतीत 
       27 सितंबर 1857 को जवाहिर करीब 300 आदमियों के साथ विद्रोह की रणनीति बना रहे थे। तभी अंग्रेज सैनिकों ने घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में जवाहिर के चाचा फागू रजवार की मौत हो गई थी। कई जख्मी हो गए थे। फिर जवाहिर की मौत हो गई थी। लेकिन 29 सितंबर को तत्कालीन डिप्टी मजिस्ट्रेट वर्सली ने लिखा कि जवाहिर डकैती में मारा गया।
        इसके पूर्व 12 सितंबर को एतवा की गिरफ्तारी के लिए अंग्रंेज और जमींदारों की सेना एतवा के गांव जा रहे थे, तभी सकरी नदी के किनारे भिड़ंत हो गई। इस घटना में एतवा बच निकले, लेकिन 10-12 साथी शहीद हो गए। तब एतवा की गिरफ्तारी के लिए 200 रूपए का इनाम घोषित किया था। कई साल बाद 8 अप्रैल 1863 को करीब दस हजार पुलिस, मिलिट्ी और जमींदार की फौज का अभियान चला, लेकिन एतवा बच निकला था।
मौजूदा हालात
      दस्तावेज के मुताबिक, एतवा के नेतृत्व में 10 सालों तक छिटपुट विद्रोह चला था। लेकिन बाद में कब मौत हुई। इसका पता नही चला है। फिलहाल, दोनों नायकों का मूर्ति भी नही स्थापित किया जा सका है। हालांकि अब कुछ लोग उन्हें याद करने लगे हैं। लेकिन याद करने का तरीका जातीय दायरे तक सीमित है। ऐसे में देश और समाज को ऐसे गुमनाम नायकों के बारे में सोचने की जरूरत है।

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